कुछ अलग तो नहीं थी वह सुबह
सूरज पूर्व से ही निकला था
कुछ अलग तो नहीं था वह दिन
रोज़ की तरह दिल धड़का तो था
फिर क्यों ये दिल उस दिन के बाद
दोबारा ठीक से धड़क नहीं पाया
फिर क्यों दोबारा सूरज ऊगा तो सही
पर मेरी ज़िन्दगी में सिर्फ अन्धकार छाया
दहशत सी है उस कमरे से मुझे
जहाँ बैठ के तेरे मुँह से गाली सुनी थी
दहशत है हर रात से मुझे
उस दिन से
जिस दिन से तेरी बेवफाई की दास्तान पढ़ी थी
तुझ से गिला करून भी तो मैं करून कैसे
तू वह है ही नहीं
जिससे
मोहब्बत का ताना बाना था
जिसे अपना जाना था
जिसे सब कुछ माना था
बस अब शोक मनाऊं छलावे का! टूटे दिल को लेके, रातों से बचूं.. उस कमरे से डरूं
बस शोक मनाऊं उसे खोने का, जो अब है नहीं!
है तो बस मेरी कल्पना में
है तो बस मेरी यादों में
बस अब शोक मनाऊं

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